कोई पहले कह चुका है,
के दर्द आशना है
बाकी हैं अजनबी सब,
चल देते हैं निपट के
चलता है संग हमारे ,
होता ही नहीं किनारे
रहता है हर डगर ये,
रूह ओ जिस्म से लिपट के
सोये तो खाब देखा ,
कोई आफ़ताब देखा
फिरते हैं होश में अब,
ज़ुल्मत में भटके भटके
ग़ाफ़िल तू क्यों है हँसता ,
मेरा हाल देख खस्ता
बच जायेगी जहां में,
मेरी खाख तो सिमटके
ये देख जुगनी रोई,
सदियों का अब्र कोई
बरसा न पर्वतों पे,
बिखरा गगन में छँटके
मैं जिसका मुन्तज़िर था,
उसे आना ही नहीं था
क्यों देखता हूँ फिरसे ,
उस मौज को पलटके
ये लम्हा ए फ़ना है,
ख़त्म होने को बना है
रहते है इस पे फिर क्यों ,
दिन रात रोज़ अटके
© 2019 Akshay Bhawani Singh. All Rights Reserved
के दर्द आशना है
बाकी हैं अजनबी सब,
चल देते हैं निपट के
चलता है संग हमारे ,
होता ही नहीं किनारे
रहता है हर डगर ये,
रूह ओ जिस्म से लिपट के
सोये तो खाब देखा ,
कोई आफ़ताब देखा
फिरते हैं होश में अब,
ज़ुल्मत में भटके भटके
ग़ाफ़िल तू क्यों है हँसता ,
मेरा हाल देख खस्ता
बच जायेगी जहां में,
मेरी खाख तो सिमटके
ये देख जुगनी रोई,
सदियों का अब्र कोई
बरसा न पर्वतों पे,
बिखरा गगन में छँटके
मैं जिसका मुन्तज़िर था,
उसे आना ही नहीं था
क्यों देखता हूँ फिरसे ,
उस मौज को पलटके
ये लम्हा ए फ़ना है,
ख़त्म होने को बना है
रहते है इस पे फिर क्यों ,
दिन रात रोज़ अटके
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