Tuesday, October 8, 2019

न मेला था
न घर था, न मैखाना था
क्या सोच बैठे इसे यूँ ही
ये जहां तो एक वीराना था

वो बातें सुबह ए नौ की
हुस्न ओ इश्क की बातें
थीं महज़ बातें
के दिल तो बहलाना था

क्या सोच के टूटी
मौज चट्टानों पे
थक हार के उसे
वापस ही आना था

गिरते हुए पत्ते को
आवारा क्यों कहें
किसी दिल में कभी
इसका भी ठिकाना था

आंधी में दिया लेके
चले थे कभी
हँसता रहा हम पे
ज़माना था

 है बचा क्या
कहने को ऐ दिल
बुझ गयी थी शमा
जल गया परवाना था


© 2019 Akshay Bhawani Singh. All Rights Reserved

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